Thursday, 13 August 2015

हर शाख पे उल्लू बैठा है

अगर पत्रकारिता के पतन की बात करनी है तो निरीह पत्रकारों को नहीं कोसा जाना चाहिए. बात मीडिया-मालिकों से शुरू होनी चाहिए जिन्होंने अरबों के मुनाफे की हवस में पत्रकारिता को भ्रष्ट नेताओं-अफसरों के हाथों बेच दिया 
Anil Yadavपत्रकारिता के अव्वल, दोयम और फर्जी संस्थानों से हर साल सपनीली आंखों वाले लड़के-लड़कियों के झुंड बाहर निकल रहे हैं. इनमें से बहुतेरे किसी दोस्त, परिचित के हवाले से मुझसे मिलते हैं. कॅरिअर के बारे में सलाह मांगने के बीच में अचानक उतावले होकर बोल पड़ते हैं, सर! कोई नौकरी हो तो बताइए, मैं अपनी जान लगा दूंगा या दूंगी. तब किसी आदिम प्रवृत्ति के तहत मेरा ध्यान उनके मांसल पुट्ठों और नितंबों की ओर चला जाता है जैसे वे किसी कसाईबाड़े में जाने को आतुर पगहा तुड़ाते जवान जानवर हों और मैं उनका गोश्त तौल रहा हूं.
उन्हें मेरी सोच क्रूर और हिंसक लग सकती है लेकिन सच यही है कि दस-बारह साल के भीतर उनका शरीर भले फैल जाएगा लेकिन उनके बौद्धिक और मानसिक सारतत्व का जरा-सा हिस्सा बहुत सस्ते दामों में खरीदकर घटिया कामों में इस्तेमाल कर लिया जाएगा बाकी हताशा में बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया जाएगा. मैं उनसे कहता हूं कुछ भी कर लो मीडिया में मत जाओ, वे मुझे संदेह से देखते हैं जैसे मैं उनका पत्ता साफ कर देने के लिए कोई षडयंत्र बुन रहा हूं, फिर उलझ पड़ते हैं तो सर आप क्यों पत्रकार हो गए और अब तक बने हुए हैं?
मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि पत्रकारिता की आत्मा कब की सस्ते में नीलाम हो चुकी है और अब पत्रकार होना जिंदगी भर के लिए गरीब, संदिग्ध, असुरक्षित और सारे धतकर्मों का मूकदर्शक होना है. तिस पर तुर्रा यह है कि इन दिनों पत्रकारों को दल्ले-भंड़ुवे जैसे संबोधनों से नवाजने का फैशन जोर पकड़ चुका है. ऐसा करने वाले अधिकतर वे हैं जो किसी न किसी अवैध धंधे में शामिल हैं. उन्हें दिल से लगता है कि उन्हें अपनी तिकड़मों से माल काटने की अबाध आजादी मिलनी ही चाहिए.
मैंने पिछले पच्चीस सालों में हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता के कई घाटों का पानी पीया है और अब भी प्यासा भटक रहा हूं. एक घाट यानी दुनिया के सबसे बड़े हिंदी अखबार दैनिक जागरण में मेरे एक संपादक थे, जो लखनऊ के हजरतगंज में दफ्तर की छत पर अखबार के सर्कुलेशन और विज्ञापन के मैनेजरों को मुर्गा बनाया करते थे, रिपोर्टरों को लप्पड़ रसीद कर दिया करते थे, महिला पत्रकारों को छिनाल और रंडी कहकर बात किया करते थे. वे खुद भी अक्सर लात खाते थे लेकिन उन्हें इसकी कुछ खास परवाह नहीं थी. पत्रकारों के साथ दासों जैसा व्यवहार करने वाले अखबार के कॉरपोरेटी हो रहे मालिक उन्हें हार्ड टास्क मास्टर कहा करते थे और चाहते थे बाकी संस्करणों के संपादक भी उन्हीं जैसे हो जाएं. उनकी नकल बहुतों ने की (अब भी करते हैं) लेकिन बराबरी कोई नहीं कर पाया.
उनका तरीका यह था कि वे अखबार के मालिकों के सारे सही गलत काम (राज्यसभा के टिकट से लेकर सस्ती दरों पर प्लॉट और महंगी दरों पर विज्ञापन हथियाने तक के काम) नेताओं और अफसरों के संपर्क में रहने वाले ब्यूरो के रिपोर्टरों को धमकाकर बड़ी तत्परता से कराते थे. चार काम मालिकों के होते थे तो दो अपने भी करा लेते थे. वे इतने दहपट थे कि पशुपालन और बागवानी जैसी बीट देखने वाले गरीब रिपोर्टरों से भी दवाएं और गमले निचोड़ लेते थे. अगर कोई होशियार रिपोर्टर उनके वाले दो काम कराते हुए एक अपना भी करा ले तो उसकी शामत आ जाती थी, तब वह दल्ला हो जाता था. उसकी नौकरी पर बन आती थी. उनसे गाली और लप्पड़ खाए कई पत्रकार इस वक्त कई बड़े अखबारों के संपादक हैं, उन्हीं की फोटोकॉपी बनना चाहते हैं. उनका जिक्र वे अपने गुरु, निर्माता और गाइड की तरह कानों को हाथ लगाकर करते हैं.
जागरण घाट के पानी का स्वाद बताने से गरज यह है कि लात-जूता और गालियों को निकाल दें तो सारे अखबार और चैनल उसी ढर्रे पर कॉरपोरेटी शालीनता का स्वांग करते हुए चल रहे हैं यानी अपने उपभोक्ताओं (पाठकों) को ठगते हुए धंधा कर रहे हैं. अगर पत्रकारिता के पतन पर बात करनी है तो निरीह पत्रकारों को नहीं कोसा जाना चाहिए जो वेतन आयोगों की निर्धारित तनख्वाह भी नहीं मांग पाते हैं, बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करते हुए हर दिन नौकरी बचाते अपने परिवार पाल रहे हैं. बात मीडिया के मालिकों से शुरू होनी चाहिए जिन्होंने करोड़ों की पूंजी से अरबों का मुनाफा बनाने की हवस में पत्रकारिता को भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और जो भी उनके हित साध सकता है उनके हाथों बेच दिया है. इन मालिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का उच्चारण करने से भी रोक दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने उसे भ्रष्टाचार की आजादी में बदल दिया है.

संपादक या तानाशाह


हिंदी पत्रकारिता में कई बार कुछ संपादक खुद को सर्कस का रिंगमास्टर समझ लेते हैं, जिसके चाबुक के डर से ही काम होते हैं. शायद ऐसे ही संपादकों के अनुभव के बाद एसपी सिंह ने कहा था, ‘संपादक अपने कमरे में तानाशाह होता ह
Cover  15 December  2011, National_Layout 1.qxdकुछ बरस पहले एक दिन सुबह-सुबह बिंदु (बदला हुआ नाम) का फोन आया. वो बहुत ही घबराई हुई लग रही थी. मुझे थोड़ा-बहुत अंदाजा तो लग गया लेकिन बिंदु ने जो बताया, वह मेरी कल्पना से परे था. बिंदु अपनी पीड़ा साझा करते हुए कभी सिसकती और कभी रोने लग जाती. वह अपने संपादक के किस्से सुना रही थी. जिस न्यूज एजेंसी में वह काम करती थी उसके संपादक अपने कर्मचारियों से बहुत ही बदतमीजी से पेश आते थे. दफ्तर में एक-दो लोग ही थे जिन पर उनके नेह की बारिश होती थी, वरना सभी उनके आगे खुद को करमजला ही मानते थे. मानें भी तो क्यों नहीं? नई दिल्ली के आरके पुरम स्थित ऑफिस से आखिरी दिन जब बिंदु उनसे बेइज्जत होकर  अपने घर के लिए बस में सवार हुई तो उसे अपने स्टॉप पर उतरने का होश ही नहीं रहा. बदरपुर में जब बस आखिरी स्टॉप पर रुकी और सभी के उतरने के बाद भी वह बस में ही बैठी रही तो कंडक्टर ने आकर कहा, ‘बहन जी उतर जाओ. बस आगे नहीं जाएगी. कहां जाना है, आपको?’ बिंदु मानो किसी दुःस्वप्न से अचानक बाहर निकल आई हो. उसने कंडक्टर से पूछा, ‘आप मुझे कहां ले आए? मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा है.’ बस कंडक्टर संवेदनशील व्यक्ति था, उसे समझ में आ गया कि वह किसी परेशानी में है. उसने बिंदु से मोबाइल लिया और उसमें फीड नंबर में से मां का नंबर निकालकर उन्हें फोन किया. कंडक्टर ने मां को बात समझाई, घर का पता लिया और ऑटो वाले को पता देकर बिंदु को घर के लिए रवाना किया. इस घटना के लगभग पंदह-बीस दिन बाद बिंदु ने मुझे फोन किया था.
बिंदु कई महीनों से परेशान थी. मुझे 15-20 दिन में उसका फोन जरूर आ जाता था. बातचीत का 95 फीसदी हिस्सा किसी दूसरे संस्थान में नौकरी मिलने की संभावना को लेकर ही केंद्रित होता था. मैं भी बिंदु के साथ उसी न्यूज एजेंसी में काम करता था. नौकरी की खोज में दो महीने की अथक मेहनत के बाद उस न्यूज एजेंसी की नौकरी को मैंने तीन महीने में ही अलविदा कह दिया था.
बिंदु हमारे संपादक की प्रताड़ना का अक्सर शिकार होती थी. बिंदु कौन थी? वह दिल्ली की एक पॉश इलाके के बीच बसी एक कच्ची कॉलोनी में रहती थी. अपने घर की महिला सदस्यों के बीच पढ़-लिखकर नौकरी करने वाली संभवतः पहली महिला थी. वह हमेशा साधारण कपड़ों में होती और उसकी बातचीत के लहजे से किसी को भी उसकी सादगी का पता सहजता से लग सकता था. वह सीधी होने के साथ थोड़ी दब्बू भी थी या हो गई थी. नौकरी संभवतः उसकी मजबूरी रही होगी. शायद इसलिए दबना उसने अपने लिए तय कर रखा था क्योंकि हम जब उससे कहते कि तुम संपादक से बात करो तो वह टाल देती. कभी जवाब न देना भी उसकी प्रताड़ित होने की एक बड़ी वजह रही हो. हमारे संपादक को अपने मातहतों को प्रताड़ित करने में मजा आता था. उन्होंने अलग-अलग मातहतों को प्रताड़ित करने के अलग-अलग दिन तय कर रखे थे. मेरे लिए गुरुवार का दिन तय था. वह अक्सर मेरी कॉपियों में मात्रा की गलतियां लगाकर मुझे बुलाते और कहते कि इस तरह की दिक्कतें रहेंगी तो फिर मेरे साथ चलना मुश्किल होगा. किसी को नौकरी पर रखने से पहले वह पूरे तीन दिन तक उससे काम करवाते. यह उनके परीक्षा लेने का एक अनोखा ढंग था. मेरी समझ में यह कभी नहीं आया कि इतना ठोंक-बजाकर नौकरी देने के बाद भी उनका हर मातहत चंद दिन बाद ही खोटा सिक्का क्यों साबित होने लग जाता था? वे अक्सर भाषण देते हुए कहते, ‘जर्नलिज्म शुड फ्लो इन योर ब्लड.’ अब ये संपादक एक बड़े एनजीओ में पीआर का काम देख रहे हैं.
जब वे अपने बॉस के सामने होते तो उनके दोनों हाथ सामने की ओर बंधे हुए होते और हर बात पर हामी भरने के जोश से भरे होते. उनके मुंह से सेना की जवान की तरह दो शब्द ही निकलते ‘यस सर… यस सर…’ हिंदी पत्रकारिता में यह गुण-दोष उनके जैसे तमाम कड़क और पीड़ित करने को आतुर दिखने वाले लोगों में समान रूप से पाया जाता है. मीडिया के तहखाने में प्रताड़ना के ऐसे हजारों किस्से दबे हुए जो कभी तनु और कभी बिंदु के माध्यम से मजबूरी में ही बाहर आ पाते हैं. टीवी पत्रकारिता को नया आयाम देनेवाले एसपी सिंह ने शायद इन संपादकों के आचरण के अनुभव के बाद ही अपने मित्रों से कहा था, ‘संपादक अपने कमरे में तानाशाह होता है.’

Sunday, 12 May 2013


माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।"
"जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।"

Thursday, 9 May 2013

sa


माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।"
"जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।".